मुंबई: 12 नवंबर 1940 को ब्रिटिश भारत के पेशावर में (अब पाकिस्तान) ज़करिया खान उर्फ जयंत और क़मर के घर एक बेटा पैदा हुआ. अपने बेटे का नाम उन्होंने अमजद खान रखा. उस वक्त किसे पता था कि उनके घर जो नन्हां मेहमान आया है, एक दिन हिंदुस्तानी सिनेमा का सबसे बड़ा विलेन ‘गब्बर सिंह’ बनेगा. अमजद खान इस दुनिया में सिर्फ 52 साल ही रहे. उनको गुज़रे हुए 26 साल हो चुके हैं. लेकिन उनका ज़िक्र आज भी हिंदी फिल्म के दर्शक करते हैं. यूं तो अमजद खान ने अपने करियर में कई फिल्में कीं. कई तरह के रोल किए, लेकिन साल 1975 में बड़े पर्दे पर रिलीज़ हुई फिल्म ‘शोले’ उनके लिए एक ऐसी फिल्म साबित हुई, जिसने उनको जीवंत कर दिया.


17 दिनों में शूट हुआ था डाकू गब्बर सिंह की मौत का सीक्वेंस  


‘गब्बर सिंह’ फिल्म ‘शोले’ का विलेन होने के बावजूद लोगों के लिए हीरो बन गया. खूंखार डकैत का रोल निभाकर अमजद खान सिनेमाई दुनिया में छा गए. निर्देशक रमेश सिप्पी की ‘शोले’ के इस गब्बर सिंह ने ऐसे ऐसे दमदार डायलॉग कहे कि वो फिल्मीं इतिहास में दर्ज हो गए. कहते हैं हिंदुस्तानी सिनेमा में गब्बर सिंह से पहले ऐसा दमदार विलेन कभी नहीं हुआ और न ही गब्बर सिंह के बाद वैसा कोई विलेन सिनेमा में नज़र आया. ‘शोले’ में अमजद खान ने जितने भी डायलॉग बोले वो यादगार बन गए.


“यहां से पचास-पचास कोस दूर जब बच्चा रात को रोता है तो मां कहती है सो जा बेटे... नहीं तो गब्बर आ जाएगा.”


“जब तक तेरे पैर चलेंगे उसकी सांस चलेगी… तेरे पैर रुके तो यह बंदूक चलेगी.”


कालिया- “सरदार मैंने आपका नमक खाया है.” गब्बर सिंह- “तो अब गोली खा.”


“क्या समझकर आए थे… की सरदार बहुत खुश होगा, शाबाशी देगा.”


“अरे ओ सांभा… कितना इनाम रखे हैं सरकार हम पर?”


“होली कब है… कब है होली, कब?”


“जो डर गया… समझो मर गया.”


“तेरा क्या होगा कालिया.”


“ये हाथ हमका दे दे ठाकुर.”


“कितने आदमी थे.”


“सूवर के बच्चों.”


डाकू गब्बर सिंह के ये तमाम डायलॉग ‘शोले’ देखने वालों को मुहज़बानी याद हैं. चंद लफ्ज़ों को गब्बर सिंह ने इस अंदाज़ में पेश किया कि वो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गए. इन डायलॉग्स ने अमजद खान को हिंदी सिनेमा का सबसे चर्चित विलेन बना दिया. ऐसा विलेन जिसके नाम से डराकर माएं अपने बच्चों को सुलाती हैं. जिसपर सरकार ने 50 हज़ार का इनाम रखा है.”



गब्बर सिंह के रोल के लिए पहली पसंद नहीं थे अमजद खान
ये बात शायद आपको हैरान कर दे, लेकिन ये सच है. दरअसल फिल्म में गब्बर सिंह के रोल के लिए निर्माताओं ने पहले डैनी डेंग्जोंग्पा को अपरोच किया था. एक इंटरव्यू में फिल्म के निर्देशक रमेश सिप्पी ने खुद इस बात का ज़िक्र किया. उन्होंने कहा कि डैनी ने इस फिल्म के लिए हां कर दी थी, लेकिन वो उस वक्त फिरोज़ खान की बड़े बजट की फिल्म ‘धर्मात्मा’ की शूटिंग कर रहे थे, ऐसे में एक साथ दोनों फिल्में करना मुश्किल था. आखिरकार रमेश सिप्पी को उन्हें फिल्म से ड्रॉप करने का फैसला करना पड़ा. हालांकि फिल्म के लेखक सलीम खान और जावेद अख्तर ने अमजद खान को गब्बर सिंह के रोल के लिए अनफिट करार दे दिया था. इस लेखक जोड़ी का कहना था कि अमजद खान की आवाज़ बहुत हलकी है. गब्बर जैसे विलेन के लिए वो किसी भारी भरकम आवाज़ वाले अभिनेता को लेना चाहते थे. लेकिन रमेश सिप्पी ने अमजद खान को गब्बर के रोल के लिए फाइनल कर लिया.


शोले में अमजद खान का पहला डायलॉग था कितने आदमी थे?” लेकिन इस सीन को पूरा करने में अमजद खान को 40 रीटेक्स लेने पड़े थे.


शोले में अमजद खान को मिले थे सिर्फ 9 सीन
फिल्म ‘शोले’ का नाम सुनते ही लोगों के ज़ेहन में सबसे पहले जिस किरदार का नाम आता है वो गब्बर सिंह ही है. लेकिन इस बात को जानकर हैरान होना लाज़िम है कि फिल्म में अमजद खान के हिस्से में सिर्फ 9 सीन ही आए थे. फिल्म में अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, संजीव कपूर, हेमा मालिनी और जया बच्चन जैसे दिग्गज कलाकार थे बावजूद इसके अमजद खान का किरदार हर किसी पर भारी पड़ा. फिल्म को रिलीज़ हुए 43 साल बीत चुके हैं, लेकिन आज भी गब्बर सिंह का किरदार लोगों को खूब पसंद आता है.

एक गौर करने वाली बात ये भी है कि लेखक सलीम-जावेद की जिस जोड़ी ने गब्बर जैसे विलेन को अपनी कलम से पैदा किया, उन्होंने दोबारा फिर कभी अमजद खान के साथ काम नहीं किया.


गब्बर सिंह के रोल के लिए अमजद खान ने मुंबई के चोर बाज़ार से खाकी आर्मी ड्रेस खरीदी थी.


 

अमिताभ बच्चन के साथ कई हिट फिल्में दीं
अमजद खान ने 11 साल की उम्र में ही सिनेमा की दुनिया में कदम रख दिया था. साल 1951 में आई फिल्म ‘नाज़नीन’ में वो बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट नज़र आए. मगर बड़े होने के बाद उन्होंने फिल्म ‘हिंदुस्तान की कसम’ से बॉलीवुड में डेब्यू किया. इस फिल्म में वो अभिनेता राज कुमार के साथ नज़र आए थे.


‘शोले’ के बाद अमजद खान और अमिताभ बच्चन की जोड़ी कई सुपरहिट फिल्मों में नज़र आई. जिनमें मुकद्दर का सिकंदर (1978), मिस्टर नटवरलाल (1979), कालिया (1981), लावारिस (1981), याराना (1981), नसीब (1981), बरसात की एक रात (1981) और सत्ते पे सत्ता (1982) जैसी फिल्में शामिल हैं.


अमजद खान चाय के बहुत बड़े शौकीन थे, अक्सर वो एक दिन में करीब 80 कप तक चाय पी जाया करते थे.


 

डबल M.A और कॉलेज टॉपर थे अमजद खान
अमजद खान काफी पढ़े लिखे भी थे. उनके बेटे शादाब खान के मुताबिक अमजद मुंबई यूनिवर्सिटी से पर्शियन में टॉपर थे. ‘शोले’ करने से पहले वो पत्रकार बनने की राह पर थे. शादाब ने अपनी याद्दाश्त पर ज़ोर देते हुए एक इंटरव्यू में बताया था कि वो उस वक्त शायद एक्सप्रेस ग्रुप के साथ काम भी कर रहे थे. आपको बता दें कि अमजद खान को हिंदी, उर्दू और पर्शियन भाषा का अच्छा ज्ञान था.


हिंदी सिनेमा को गब्बर जैसे यादगार और मज़बूत विलेन से रू-ब-रू कराने वाले अमजद खान 27 जुलाई 1992 को दिल का दौरा पड़ने की वजह से इस दुनिया को अलविदा कह गए थे.